(वर्ल्ड डायबिटीज़ डे पर विशेष)
झांसी 14 नवंबर। डायबिटीज़ (मधुमेह) का नाम ऐसा है जो आज के हमारे समाज में सामान्य रूप से प्रचलित है अर्थात यह एक ऐसी बीमारी है जो समाज के अधिकांश लोगों को होने के कारण सामान्य सी बात नजर आती है लेकिन नवजात और छोटे बच्चों में भी इस बीमारी का पाया जाना एक ऐसा सवाल है जो चिंता का कारण है इसलिए आज विश्व डायबिटीज़ डे पर इस बात की जानकारी हासिल करना आवश्यक है
यहां महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज के बालरोग विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ़ ओम शंकर चौरसिया ने बताया कि देश में बच्चे और खासकर नवजात से लेकर 14 साल तक के बच्चे डायबिटीज़ के एक अलग तरह के प्रारूप “ टाइप वन डायबिटीज़” से ग्रसित हैं। यह बच्चों के लिए बहुत घातक है लेकिन बड़ों के बीच इस बीमारी प्रारूप को लेकर जागरूकता का अभाव बच्चों के लिए बड़ा घातक साबित हो रहा है इसी कारण प्रभावित बच्चों को समय से इलाज नहीं मिल पा रहा है
उन्होंने बताया कि शहर में इस तरह के तमाम बच्चे चाइल्डहुड डायबिटीज यानी टाइप वन डायबिटीज की चपेट में आकर असमान्य जिंदगी बिता रहे हैं। कोई बार बार पानी पीता है और बिस्तर गीला कर देता है तो कोई जन्म से थोड़े बड़े होने के साथ ही इंसुलिन के इंजेक्शन ले रहा है। डॉ़ चौरसिया ने बताया कि टाइप वन डायबिटीज में या तो इंसुलिन बनता ही नहीं है या अगर बनता भी है तो बेहद कम बनता है। इंसुलिन ही हमारे शरीर में शुगर के स्तर को नियंत्रित रखता है और ऐसी बीमारियों में नियंत्रक की शिथिलता प्रभावित व्यक्ति के लिए बड़ी बीमारी का कारण बनती है। इंसुलिन शरीर में पेनक्रियाज में जो बीटा सेल से बनता है इंसुलिन ना होने से कोशिकाएं शुगर की मात्रा को संतुलित नहीं कर पाती हैं ।
लंबे समय तक शुगर के असंतुलन से आंखों की रोशनी जा सकती है साथ ही बच्चे और भी परेशानियों से दोचार हो सकते है। बच्चों के शरीर पर बार बार फोड़े फुंसी होने से , वजन व कम लंबाई होने से ,बार बार भूख लगने और खाने के बाद भी वजन घटने, पेट दर्द , बुखार ,बार-बार प्यास लगना या पेशाब जाना, बच्चों का बेहोश हो जाना आदि वह लक्षण हैं जो बच्चों में टाइप वन डायबिटीज़ के पनपने के सूचक है इसलिए अभिभावकों को इस ओर सचेत रहना ज़रूरी है1
डॉ़ चौरसिया ने बताया कि आजकल की अव्यवस्थित जीवन शैली ने बच्चों में इस बीमारी को व्यापक रूप देने में बहुत मदद की है। बच्चों के बीच फास्ट फूड के बढ़ते चलन और शरीर में हार्मोन का बढ़ता असंतुलन उन्हें इस बीमारी की चपेट में आने के लिए तैयार कर रहा है इसके अलावा आनुवंशिक कारणों से भी यह बीमारी बच्चों को मिलती है।
उन्होंने बताया कि पहले मरीज इंसुलिन के दो या तीन इंजेक्शन प्रतिदिन दिए जाते थे बाद में डिवाइस इन्सुलिन इंजेक्शन आ गए जो जरूरत के हिसाब से लगाए जाने लगे ,फिर भी बच्चों को दर्द खेलना पड़ता था। अब नया दौर फिजियोलॉजिकल इन्सुलिन पंप का है जो बच्चों के लिए वरदान से कम नहीं यह पंप शरीर में ही फिट हो जाता है बच्चे को बार बार इंसुलिन नहीं देनी पड़ती है यह पंप तीन चार बार दिन में बदलना पड़ता है इससे डायबिटीज के मरीज की सामान्य जिंदगी हो जाती है क्योंकि यह पंप अभी थोड़े से महंगे हैं इसलिए धीरे-धीरे इनका चलन बढ़ रहा है भविष्य में इन्हीं पंपों से इंसुलिन दी जाएगी जिससे कि शुगर नियंत्रित करने में आसानी होगी एवं इंजेक्शन का दर्द नहीं होगा।
बच्चों में इस बीमारी की भयावहता और आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित होने से ज्यादा ज़रूरी है कि जीवनशैली में बदलाव का काम पूरी ईमानदारी से किया जाए यदि हम ऐसा कर पाये तो आने वाली पीढ़ी को इस बीमारी की चपेट में आने से रोक सकते हैं।