दशहरा पर्व

दशहरा पर्व के सनातन अर्थ तक पहुंचना सर्वप्रमुख दरकार

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झांसी। देशभर में बुराई पर अच्छाई, अधर्म पर धर्म और असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक के रूप में आज विजयदशमी और दशहरा पर्व मनाया जा रहा है।एक और जहां देश भर में हिंदू धर्म के अनुयाई और सनातन परंपरा को मानने वाले इस पर्व को धूमधाम से मना रहे हैं तो थोड़ा ठिठक कर यह समझने की भी दरकार है कि क्या यह पर मात्र परंपरा है या इनका संदेश कुछ गहरा है।

दशहरा पर्व

दशहरे में  हम हर साल रावण का पुतला बड़े से बड़ा बना कर जलाते है कि हमारी सारी बुराइयाँ भी इस पुतले के साथ अग्नि में स्वाह हो जाये।लेकिन क्या ऐसा होता है? नही, क्योकि अगर हमारी व समाज की बुराइयाँ सच में रावण के पुतले के साथ अग्नि में स्वाह होती तो क्या हम हर वर्ष रावण के पुतले को बड़े से बड़ा बनाते?

कभी नही, इसका अर्थ यह निकलता है कि हम मानते और जानते है कि समाज में दिनों-दिन बुराइयाँ व असमानताएँ भी रावण के पुतले कि तरह बड़ी होती जा रही है। तर्क तो यह है कि हम इन पर्वो पर सिर्फ़ परंपरा निभाते है। इन त्योहारो से मिले संकेत और संदेशों को अपने जीवन में नही उतारते।

दशहरा पर्व

इस पर्व से जुड़ी चाहे रामायण परंपरा हो या देवी महात्मय परंपरा दोनों में ही बुराई के नाश को प्रमुखता से दिखाया गया है तो आज यह समझना भी बहुत जरूरी है कि वर्तमान संदर्भ में आखिर बुराई है क्या?? परंपरा चाहे जो भी हो लेकिन यह पर्व स्पष्ट रूप से हमें बुराइयों के नाश और कुछ नए के प्रारंभ के का संदेश देता है।

कभी ज्ञान का पहला पालन कहलाने वाले भारत देश में जिस तरह से आज शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ है ऐसे में अपने सभी पर्व और परंपराओं को ज्ञान के माध्यम से फिर से समझना की जिम्मेदारी भी प्रत्येक व्यक्ति और विशेष कर सनातनी पर आ जाती है, क्योंकि कुछ तो इन पर्वों में ऐसा है जो सनातन है ।

भारतीय दर्शन में मूल बुराई ” अज्ञान”  को ही माना गया है। हमारे ऋषियों और ज्ञानियों ने हमेशा समझाया है कि मूल बुराई ही अज्ञान है। अज्ञान में पैदा होना और अज्ञान में ही मर जाना, इससे बड़ी बुराई और कुछ नहीं होती। हमें इन्हीं सनातनी अर्थों में अपने  पर्वो को भी व्याख्याित करने की आज बहुत जबरदस्त दरकार है।

दशहरा पर्व

एक समाज के रूप में भारत जिस तरह के दंश आज झेल रहा है उससे निपटने के लिए  प्रत्येक व्यक्ति में वास्तविक धर्म की मदद से आने वाले बोध को मजबूत करके आत्म बल को मजबूती देना बहुत जरूरी है ताकि हर एक व्यक्ति ज्ञान के प्रकाश में पूरे आत्मबल के साथ अपने भीतर पनपने वाली बुराइयों का नाश कर सके और भीतर से मजबूत होकर फिर जगत में बड़ी लड़ाइयों के लिए तैयार हो जाए जो आज उसके जीवन का दुख दर्द बनी हुई है।

रावण के 10 सिर प्रतीक है मनुष्य के भीतर पलने वाले 10 तरह के पाप, काम, क्रोध, लोभ, मोह , मत्सर ,अहंकार ,आलस ,हिंसा और चोरी का। यह मनुष्य के भीतर बनने वाले अलग-अलग केंद्र हैं । मनुष्य जीवन भर इन्हीं केंद्रों से काम करता रहता है और हर एक केंद्र से एक नया व्यक्तित्व उसके भीतर पैदा होता है। दूसरी ओर राम प्रतीक है एकत्व का ,स्थिरता का और स्वकेन्द्रित होने का।

यह प्रतीक बताते हैं कि व्यक्ति के भीतर जितने अधिक केंद्र होंगे वह व्यक्ति  उतना ही बंटा हुआ जीवन जीता है  इसीलिए वह किसी काम को पूर्णता के साथ नहीं कर पाता और अपने ही विभिन्न केंद्रों से लड़ते-जूझते हुए एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस तरह से रावण की भांति अपना जीवन जीने वाले लोग कभी किसी केंद्र को पूर्ण तरह समर्पित नहीं हो पाते हैं और उनका मन भटकाव में उलझा रहता है।

दूसरी और श्री राम है जो स्वकेन्द्रित होने, विराट होने और अनंत होने का प्रतीक है। शरीरी रावण को तो देहधारी श्री राम त्रेता युग में ही मार कर उसे युग के लोगों को स्थूल संदेश दे चुके लेकिन इस पर्व के माध्यम से ऐसा संदेश छोड़ा गया जो अनंत काल तक बना रहेगा, जब तक मनुष्य जाति है।

विजयदशमी और दशहरा पर्व  का संदेश मानव मात्र के लिए है इसीलिए सनातन है और वह यह है कि  रावण की तरह छोटे होकर, विभिन्न तरह के प्रभाव में ,एक ही जीवन में अलग-अलग रूप रखते हुए जीवन नहीं जीना है। जीवन की सार्थकता श्री राम के जैसे शांत होकर, विराट होकर, आकाश होने में है। जीवन सत्य में जीना है माया में नहीं, जागृति में जीना है अंधकार में नहीं, समर्पण में जीना है अहंकार में नहीं ।यह पर्व हमें संदेश देता है सहज हो जाने का, राम हो जाने का।

दशहरे के इस पावन पर्व पर हम सब यह सोचने के लिए बाध्य हो कि देश और समाज कि प्रगति के लिए हम अपनी सभी बुराइयों को भी रावण के पुतले के साथ सदा-सदा के लिए जला देंगे और समाज व देश कि उन्नति के लिए कार्य करेंगे, तभी हमारी सही मायने में रावण पर विजय होगी।

टीम वैभव सिंह

बुंदेलखंड कनेक्शन

 

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