चुनावी नाटकीय घटनाक्रम

बिक गया झांसी का सम्मान ! सत्ता बल या धन बल कौन है जिम्मेदार ?

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झांसी 19 अप्रैल । उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव के तहत भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के झांसी नगर निगम सीट पर महापौर के  उम्मीदवार के रूप में बिहारी लाल  आर्य का नाम सामने आते ही स्थानीय स्तर पर विरोध के स्वर तेजी से मुखर होने लगे। अधिकतर कार्यकर्ता झांसी से बाहर मऊरानीपुर तहसील का होने के कारण पार्टी उम्मीदवार का खुलकर विरोध करने लगे। इसी विरोध में एक प्रमुख नाम बनकर उभरी भाजपा के ही टिकट से महापौर रह चुकीं किरण वर्मा।

अगले महापौर के रूप में बिहारी लाल आर्य के चयन पर उन्होंने गंभीर सवाल उठाये और झांसी में इतने कर्मठ कार्यकर्ताओं और प्रभावी नेताओं की मौजूदगी के बाद किसी बाहरी व्यक्ति को झांसी नगर निगम का प्रमुख बनाने के पार्टी के फैसले पर जबरदस्त चोट की। उन्होंने मीडिया के समक्ष अपना विरोध दर्ज कराते हुए कहा “ यह वीरांगना लक्ष्मीबाई की धरती है और जिस तरह से अंग्रेजों के खिलाफ हमारी रानी ने घुटने नहीं टेके थे और पुरजोर विरोध जताते हुए कहा था कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी, उसी तरह मैं भी पार्टी के इस फैसले का पुरजोर विरोध करते हुए कह रहीं हूं ” मैं भी अपनी झांसी में किसी बाहरी व्यक्ति को स्वीकार नहीं करूंगी।”

पार्टी के फैसले को गलत बताते हुए श्रीमती वर्मा ने बताया कि उन्होंने मौखिक रूप से पार्टी पदाधिकारियों को इस्तीफा सौंप दिया है और
अब वह नामांकन करने जा रहीं हैं। अपनी बात पर रहते हुए नामांकन की आखिरी तारीख को पूर्व महापौर ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में पर्चा भर भी दिया।

इसी के बाद चालू हुआ वह नाटकीय घटनाक्रम जिसे हम और आप को, राजनीतिक मजबूरियां कहकर समझाया जाता है। उनके विरोध के स्वर मीडिया में मुखरित होने के बाद पार्टी के स्थानीय नेताओं और लखनऊ में बैठे पार्टी के आला पदाधिकारियों के बीच बेचैनी शुरू हुई।
इसके बाद शुरू हुआ मान मनौव्वल का दौर । श्रीमती वर्मा को लखनऊ बुलाया गया और पार्टीगत चर्चा के तहत न जाने क्या घुट्टी पिलायी गयी कि  अपने विरोध की तुलना महान वीरांगना लक्ष्मीबाई के विरोध से करने वाली पूर्व महापौर के विरोध की हवा मात्र एक दिन मे ही निकल गयी और वह न केवलअपना नामांकन वापस लेने को सघर्ष तैयार हो गयीं बल्कि पार्टी के फैसले को भी सही बताने लगीं।

अब आप लोग सोच रहे होंगे कि यह क्या था ?? तो साहब चौंकिये नहीं इसे ही कहते हैं राजनीति और चुनाव । यहां न तो कोई स्थायी मित्र होता है और न ही कोई स्थायी शत्रु। जो सर्वोपरि होता है वह है अपना स्वार्थ।

अब इस मामले में विरोध का दम्भ भरने वाली पूर्व महापौर किस के आगे झुकीं धन बल या सत्ता बल  यह तो वह ही बेहतर जानतीं हैं लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने हर झांसीवासी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि अपने निहित शूद्र फायदे और नुकसान के लिए इस धरती से लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले महान व्यक्तित्वों के महान उदगारों को जिस तरह से इस्तेमाल कर उनका मान मर्दन किया जाता है वह कहां तक ठीक है?  विचार करने की जरूरत है हर व्यक्ति को । यह तो एक मामला चुनावी समर में सामने आया लेकिन अकसर न जाने कितने ही लोग इस तरह से फायदे और नुकसान को ध्यान में रखकर महान विभूतियों का इस्तेमाल करते हैं। यह बेहद खतरनाक चलन है और इसके लिए समाज को जागरूक होने की जरूरत है।

रानी ने किसी एक के लिए सर्वस्व बलिदान नहीं किया था इसलिए किसी एक की जिम्मेदारी नहीं हैं उनके सम्मान की रक्षा की। अगर कहीं भी किसी के भी द्वारा ऐसे  महान बलिदानियों के नाम का इस्तेमाल महज अपने शूद्र स्वार्थों के लिए किया जाएं तो जरूरत है हर झांसीवासी के विरोध की और कहने की कि “ हम अपनी रानी के महान बलिदान और महान वचनों को इस तरह से इस्तेमाल नहीं होने देंगे।”

बाकी आप सब सुधिजन हैं समझदार हैं। जनता सब देखती है जनता सब जानती है।

डेस्क
बुंदेलखंड कनेक्शन

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