झांसी। लद्दाख भारत के माथे पर चमकता हुआ वह हीरा जिसकी चमक जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होते हुए भी अनूठी थी और 2019 में केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद भी रही लेकिन इन दिनों इस क्षेत्र में हालात बहुत नाजुक हैं और ऐसे हिंसक दृश्य यहां से देखने को मिले जैसे पहले कभी नहीं मिले।
यह स्थिति अपने आप में सवाल उठाती है कि जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होते हुए भी तमाम तरह की कमियों से रूबरू होने के बावजूद लद्दाख में न कोई विद्रोह देखने को मिला और न ही वहां किसी तरह से आतंकवाद खुद को स्थापित कर सका जैसा कश्मीर में हुआ, फिर आज लद्दाख क्यों सुलगा।
यह उत्तरी सीमावर्ती क्षेत्र है लेकिन यहां के निवासियों का स्वभाव और उनकी सोच देश के अन्य किसी भी सीमावर्ती राज्य से सर्वथा भिन्न है,इसी का कारण है कि जिस तरह की देश विरोधी,आतंकवादी और अलगाववादी ताकतें अन्य सीमावर्ती क्षेत्रों जैसे पंजाब , कश्मीर पूर्वोत्तर राज्यों आदि में सिर उठाती नजर आयीं वैसा कुछ भी लद्दाख में देखने को कभी नहीं मिला।
यह अपने आप में स्पष्ट करता है कि इस क्षेत्र का सामाजिक ताना-बाना और निवासियों की सोच काफी अलग है लेकिन वर्तमान में इस शांत क्षेत्र से भी जिस तरह के समाचार और तस्वीरें बाहर आयीं वह राष्ट्रहितों के सर्वथा विपरीत हैं। इसलिए इस क्षेत्र के बारे में बात करना, यहां के निवासियों की परेशानियों को अलग नजरिये से देखने , सुनने और इनके लिए अलग तरह से प्रयास करने की जिम्मेदारी सरकार की है और आम जनता को भी लद्दाख के इस हिस्से की मांगों पर कोई भी सोच विकसित करने से पहले यहां के इतिहास को सहानुभूतिपूर्वक समझने की दरकार है।
लद्दाख को 2019 में केंद्र सरकार ने जम्मू -कश्मीर राज्य से अलग कर जिस तरह से केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया तो उस समय यहां की जनता के बीच खुशियां फैल गयी और केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार को इस क्षेत्र से पूरा चुनावी लाभ भी हुआ। लेकिन जैसे -जैसे समय गुजरा यहां के लोगों को लगने लगा कि केंद्र की नीतियों के पालन से इस हिमालयी और बेहद नाजुक पारिस्थितकीय तंत्र वाले इलाके में हालात खराब हो रहे हैं।
एक ओर बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार मुहैया कराने वाली नीतियों का अभाव तो दूसरे ओर नाजुक पारिस्थितकीय तंत्र वाले इनके इलाके में विकास की देशव्यापी अवधारणा के लागू होने से स्थानीय संसाधनों की बरबादी और इन पर बाहरी लोगों का कब्जा बढ़ता जा रहा है।
केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद एक आम लद्दाखी को अपने क्षेत्र का शासन अपनी स्थितियों के हिसाब से होने का जो भरोसा मिला था वह धीरे धीरे कहीं दरकने लगा। उस समय सरकार ने इस क्षेत्र की जनता से जो वादे भी किये थे वह आमजनता के नजरिये से उस तरह से सकारात्मक साबित नहीं हो सके।
लद्दाख की यह परिस्थितियां इस क्षेत्र के विभिन्न सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक निकायों के समूह लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक एलाइंस (केडीए) के लिए परेशान करने वाली हो गयीं । यह संगठन क्षेत्र के लिए अधिक अधिकारों की मांग करने वाले लोगों के आंदोलन का भी नेतृत्व करते हैं।
जाने माने पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के साथ साथ इंजीनियर तथा इनोवेटर सोनम वांगचुक भी एलएबी का हिस्सा हैं। यह संगठन लद्दाख के लिए राज्य का दर्ज, दो लोकसभा सीटें दिये जाने, एक लोक सेवा आयोग स्थपित किये जाने और क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में डाले जाने की मांग को लेकर लगातार शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन कर रहे थे ।
अपनी इन्हीं मांगों को लेकर शांतिपूर्ण तरीके से भूख हड़ताल करने वाले यह संगठन लंबे समय से सरकार की ओर से प्रभावी प्रतिक्रिया न मिलने से निराश थे। यह निराशा जरूरी मुद्दों पर हर बार बातचीत लेकिन फिर भी प्रभावी हल न निकल पाने से हताशा में बदल रही थी। श्री वांगचुक के नेतृत्व में लेह से एक प्रतिनिधिमंडल पैदल दिल्ली यात्रा पर गया था और सरकार के प्रतिनिधियों से अपने क्षेत्र के लोगों की अपेक्षाओं को लेकर बात की थी लेकिन कोई प्रभावी हल नहीं निकल पाया। एक के बाद एक वार्ताओं के दौर और प्रभावी फैसला न हो पाने से न केवल संगठनों बल्कि आम लद्दाखी और विशेषकर युवाओं के मन में कहीं न कहीं केंद्र की मंशा को लेकर खटास पैदा होने लगी।
इस सब के बीच 10 सितंबर से फिर से श्री वांगचुक के नेतृत्व में हमेशा की तरह इस बार भी भूख हड़ताल शुरू की गयी।हडताल के14वें दिन दो अनशनकारियों की हालत बिगड़ गयी। इसी के बाद आंदोलन से जुड़े युवाओं का सब्र टूट गया और फिर जो हिंसा का दौर लद्दाख में देखने को मिला वह किसी ने छिपा नहीं है।
इन सब घटनाक्रम के बीच मामले से निपटने में कहीं न कहीं नीति निर्माताओं का ढुलमुल रवैया साफ नजर आता है जिससे न केवल इस क्षेत्र के प्रतिनिधियों बल्कि आम जनता में भी केंद्र की मंशा को लेकर अविश्वास पैदा हुआ।
इस मामले में यह बेहद महत्वपूर्ण है कि इस क्षेत्र के लोगों ने कई प्रकार की कमियों का सामना करते हुए भी कभी हिंसात्मक आंदोलन का सहारा नहीं लिया और न ही राष्ट्र हित के विरोध में कोई ऐसा आंदोलन या काम किया है जैसा बाकी सीमावर्ती राज्यों में देखने को मिला है। ऐसे में सरकार को इस क्षेत्र की समस्याओं , आमजनता के हितों और पर्यावरणीय खतरों को ध्यान में रखकर कोई बीच का रास्ता निकलते हुए समस्या का समाधान जल्द से जल्द किये जाने की दरकार है।
अलग तरह का स्थिति और परिस्थितियों में अलग तरह का व्यवहार दिखाने वाले लद्दाख और लद्दाखियों पर आरोप लगाने या सख्त प्रतिक्रिया देने की जगह सरकार को इस पर गहन मनन करने की भी आवश्यकता है कि अगर इस मुद्दे को बेहद सावधानी पूर्वक जल्द से जल्द नहीं निपटाया गया तो कहीं छोटे शांत क्षेत्र में बढ़ता असंतोष बड़े राष्ट्रहितों पर बड़ा कुठाराघात न कर दे।
टीम वैभव सिंह
बुंदेलखंड कनेक्शन